सूर्य विज्ञान - श्रीसाम्ब प्रणीत साम्बपञ्चाशिका

“साम्बपञ्चाशिका त्रैपुर्य सिद्धान्त का अपूर्व ग्रन्थ है। इसमें बाह्य गगन स्थित सूर्य एवं भीतर चिद्गगन में आलोकित प्रकाशात्म सूर्य का ऐक्य मुख्य प्रतिपाद्य है। यह वासुदेव भगवान् श्रीकृष्ण के पुत्र जाम्बावती से उत्पन्न श्रीसाम्ब द्वारा विरचित है । इस में ५३ पद्य हैं। स्वात्मविवस्वत् चिदर्क की पचास पद्यों में स्तुति एवं तीन पद्यों में पुष्पिका है। यह परम रहस्यमय आध्यात्मिक गहन ग्रन्थ है। महामाहेश्वर राजानक क्षेमराज ने इस पर संस्कृत भाषा में टीका लिखकर इसके रहस्य को प्रकट करने का प्रयत्न किया है।” - इस तरह वाराणसी के प्रकांड विद्वान् महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज जी ने इस स्तोत्र के अपने संस्करण के प्ररोचना (प्राक्कथन) तथा आभास (विषयावतरण) में लिखा था। स्तोत्र को समझने के लिये न केवल अध्यात्मिकयोग्यता, बल्कि काव्यप्रतिभा और संस्कृत भाषा योग्यता भी आवश्यक है। अध्यात्मिक बातें श्लेष अलंकार के उपयोग से बहुत सुन्दर तरीके से व्यक्त किया गया है। श्लेष अलंकार की परिभाषा है 'तन्त्र-प्रयोगः श्लेषः' (वामनाचार्य – काव्यालंकारसूत्राणि) जिससे एक साथ दो अर्थ समझे जाते हैं - एक सामान्य अर्थ, दूसरा गुप्त अर्थ। कुछ एसे तथ्य हैं, जिन्हें सिर्फ़ इसी तरीके से व्यक्त किया जा सकता है। एक तो उदित सूर्य का वर्णन है और दूसरी ओर - चिदर्क का, जो सभी के अन्दर चैतन्य के रूप में सदैव विराजमान है। इस सिद्धान्त में योग वही है, जब बाहर का सूर्य और अन्दर का सूर्य एक चिद्रूपी प्रकाश सम्मिलित होंगे। वही इस स्तोत्र की परम भक्ति और परम ज्ञान का आदर्श है। बीच में स्तोत्र में वेद और आगम की गूढ बातें भी स्पष्ट किये गये हैं, और वाक् का स्वरूप भी दिखाया गया है।

ध्यन करें कि इस यह स्तोत्र मन्दाक्रान्त छंद में रचित है। उसके गायन के दौरान सात ताल का अपने आप लय प्रकट होता है, जो उदित सूर्य का अनुकरण करता है। ज़रा गायन करके कोशिश कीजिये। मेरे अनुभव से यह स्तोत्र भारतीय साहित्य के सबसे गभीर स्तोत्रों में एक है। जब तक हम संस्कृत में दो समानन्तर अर्थों को एक साथ (क्रम से नहीं!) समझना नहीं सीखेंगे, तब तक इसका सही भाव अनुभाव में नहीं आ सकेगा। 

यहां केवल पहले तीन श्लोकों को अनुवाद सहित उपलब्ध कराता हूं। यदि पूरा सीखना हो, तो आप दूसरे अनुवादों के सहारे मूल स्तोत्र सीख सकते हैं जिनकी सूची नीचे दी गयी है। 

फ़िलिप रुचिंस्की

 

शब्दार्थत्वविवर्तमानपरमज्योतिरुचो गोपतेर्
उद्गीथोऽभ्युदितः पुरोऽरुणतया यस्य त्रयीमण्डलम् ।

भास्वद्वर्णपदक्रमेरिततमः सप्तस्वराश्वैर्वियद््-

विद्यास्यन्दनमुन्नयन्निव नमस्तस्मै परब्रह्मणे ॥ १ ॥

 

उद्गीथ - प्रध्वनित प्रणव – को नमस्कार हो, जो शब्द और अर्थ की उषा के रूप में अभिव्यक्त सूर्य की ज्योती की सुषमा में उदित हो रहा है, जिसका तीनों वेद रूपी मण्डल सुन्दर वर्णों और पदों की चमकीली करिणों के क्रम से अंधकार को नष्ट करता है, जो सात स्वरों रूपी घोड़ों से चित्त रूपी आकाश में विद्यारूपी रथ-स्पन्दन को चलाते हुए ऊपर उठ रहा है ॥१॥

 

ओम् इत्यन्तर्नदति नियतं यह प्रतिप्राणि शब्दो

वाणी यस्मात्प्रसरति परा शब्दतन्मात्रगर्भा।

प्राणापानौ वहति च समौ यो मिथो ग्राससक्तौ

देहस्थं तं सपदि परमादित्यमाद्यं प्रपद्ये ॥ २ ॥ 

 

जो 'ओम्' शब्द प्रत्येक प्राणी के हृदय में निरन्तर निनादित हो रहा है, जिससे परा वाक् शब्द-तन्मात्र को गर्भ में रखती हुई प्रसारित हो रही है, जो एक दूसरे को निगलने में लगे हुए प्राण और अपान को साम्य भाव में ले जाती है, उस प्रथम आदित्य को जो शरीर के अंदर है, एक ही क्षण में प्रणाम करता हूं ॥

 

यस्त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणपाण्यंघ्रिवाणी-

पायूपस्थस्थितिरपि मनोबुद्ध्यहंकारमूर्तिः।

तिष्ठत्यन्तर्बहिरपि जगद्भासयन्द्वादशात्मा

मार्तण्डं तं सकलकरणाधारमेकं प्रपद्ये ॥३॥

 

जो स्पर्शन, दर्शन, श्रवण, रसन, सूंघन, हाथ, पैर, बोल, प्रजनन और विसर्जन इंद्रियों की स्थिति रखते हुऐ भी अंदर के मन-बुद्धि-अहंकार की मूर्ति है और द्वादशात्म के रूप में स्थित बाहर की दुनिया को भी भासित करता हुआ समस्त इन्द्रियों का एक ही आधार है, उस एक मार्तण्ड को प्रणाम करता हूं ॥३॥

 

साम्बपञ्चाशिका के उपलब्ध अनुवाद - 
१) हिंदी अनुवाद:  शैवाचार्य ईश्वरस्वरूप स्वामी लक्ष्मण जू महाराज :  श्रीसाम्बपञ्चाशिका भाषाटीका व राजानकक्षेमराजकृत व्याख्या सहित।  ईश्वर आश्रम ट्रस्ट,  श्रीनगर (काश्मीर) २०००-२०६६ (वि.सं.) / १९४४-२००९ (ई.सं.).  [ed. Swāmī Lakṣmaṇa Jū, Īśvara Āśram Trust, Śrinagar 2000-2009]. 
२) फ़्रांसीसी अनुवाद : Andre Padoux: Sāmba-pañcāśikā, Les cinquante strophes de Samba [à la gIoire du soleil], in: Le Parol i Marmi, पृ. 565-580.
३) अंग्रेज़ी अनुवाद : Bettina Bäumer: Surya in a Śaiva perspective: the Sambapancasika mystical hymn of Kashmir and its commentary by Ksemaraja. In: Sahrdaya, Studies in Indian and South East Asian Art in Honour of Dr. R. Nagaswamy”, Tamil Arts Academy, 2006. 

 

 

 

 

 

Dział: